आश्रम - वेब सीरीज़ का रिव्यू 2020

बाबा से ज़्यादा ढोंगी हैं बॉबी देओल पर बेहतरीन कास्ट दर्शकों को बांधती है।

रेटिंग - 2/5
सीरीज़ - आश्रम
निर्देशक - प्रकाश झा

स्टारकास्ट - बॉबी देओल, चंदन रॉय सान्याल, अदिति पोहानकर, दर्शन कुमार, तुषार पांडे, राजीव सिद्धार्थ, अनुप्रिय गोयनका व अन्य
एपिसोडस - 9 एपिसोड/40 मिनट प्रति एपिसोड


गरीबों वाले बाबा की जय हो, नसीबों वाले बाबा की जय हो, जप नाम जप नाम के जयकारों के बीच जब एक मुस्कुराते हुए बॉबी देओल की एंट्री इस सीरीज़ में होती है तो दर्शक उत्साहित होते हैं। उनका लुक और गेट अप कई बाबाओं की याद दिलाता है। और साथ ही एक अच्छी सीरीज़ की भूमिका बांधता है।लेकिन ये उम्मीद, बॉबी देओल की पहली डायलॉग डिलीवरी के साथ टूट जाती है। हालांकि अगले 20 मिनट में ही कहानी में ये स्थापित कर दिया जाता है कि बाबा एक ढोंगी है। और इसे लेकर दर्शकों को बिल्कुल नहीं घुमाया गया है।इसके बाद शुरू होता है भक्ति के बिज़नेस से शुरू हुआ एक खेल जो समाज की कई कुरीतियों को छूता दिखता है। प्रकाश झा इस सीरीज़ के साथ वही करते दिखते हैं जिसमें वो माहिर हैं। समाज की कुप्रथाओं पर प्रहार करना और वेब सीरीज़ में उन्हें पूरा मौका मिलता है अपनी बात विस्तार से कहने का। लेकिन क्या 45 मिनट के हर एपिसोड की 9 कड़ियों वाली ये सीरीज़, दर्शकों को इंटरटेन करने में सफल होती है। जानिए हमारे रिव्यू में।

प्लॉट

कहानी शुरू होती है पम्मी पहलवान (अदिति पोहानकर) के महाप्रसाद और बाबा के आशीर्वाद लेने के समय से। और फिर कहानी जाती है फ्लैशबैक में कैसे पम्मी पहलवान जो कि एक दलित समाज से है, उसे एक बाबा पर विश्वास हो जाता है, क्योंकि बाबा हरिजनों को सम्मान की ज़िंदगी देता है। वहीं दूसरी तरफ एक फैक्टरी की साइट पर मिलता है एक कंकाल और शुरू होती है उस कंकाल के केस को दबाती पुलिस की टीम और सरकार और उस कंकाल केस को सुलझाने में जुटी एक डॉक्टर नताशा (अनुप्रिया गोयनका), दो पुलिस ऑफिसर उजागर सिंह (दर्शन कुमार), साधु (विक्रम कोच्चर) और एक लोकल रिपोर्टर (राजीव सिद्धार्थ)।

एपिसोडस

आश्रम का पहला एपिसोड ही कहानी की पूरी नींव रखता है और इसमें शामिल होती है राजनीति, अंधभक्ति, ढोंगी बाबाओं का बिज़नेस, जाति प्रथा सब कुछ। हर एपिसोड के साथ कहानी समाज की एक नई समस्या को बढ़ावा देती दिखती है। लेकिन हर एपिसोड में दोनों पैरेलल प्लॉट एक साथ बढ़ते दिखते हैं। एक तरफ बाबा का भक्ति बिज़नेस और दूसरी तरफ कंकाल केस को सॉल्व करता एक पुलिस ऑफिसर। ज़ाहिर सी बात है कि कंकाल की कड़ी, जुड़ी मिलती है आश्रम से।

किरदार

अगर किरदारों की बात करें तो कहानी में किरदार बढ़ते जाते हैं लेकिन इसे उलझाते नहीं हैं। हर किरदार अपने साथ कहानी को और आगे लेकर जाता है लेकिन उतना ही बाबी के अतीत में भी ढकेलता है। पम्मी के किरदार में अदिति पोहानकर और उनके भाई के किरदार में तुषार कपूर इस कहानी को शुरू करते हैं। लेकिन इसे आगे बढ़ाते हैं निराला बाबा (बॉबी देओल) का असिस्टेंट भोपा सिंह (चन्दन रॉय सान्याल) और कंकाल का सच तलाशते पुलिस ऑफिसर उजागर सिंह (दर्शन कुमार)। वहीं 6 एपिसोड बाद कहानी में बबीता (त्रिधा चौधरी) की एंट्री कहानी को खोलना शुरू करती है।

अभिनय

बॉबी देओल को छोड़कर सीरीज़ के सारे किरदार अपना बेस्ट देते हैं। बॉबी देओल, बाबा के रोल में असहज लगते हैं। या यूं कहिए कि निराला बाबा से मॉन्टी सिंह बनना और फिर मॉन्टी सिंह से निराला बाबा बनने के बीच बॉबी देओल बुरी तरह लड़खड़ाते दिखते हैं। उनकी बोली और लहज़ा में बाबा कम और सनी देओल की डायलॉग डिलीवरी का असर बेतहाशा दिखता है जो आपको कहानी से तोड़ता भी है और इरिटेट भी करता है।

निर्देशन

प्रकाश झा ने अपनी जितनी फिल्मों में अब तक जितनी समस्याएं दिखाई हैं वो सारी समस्याएं एक साथ इस सीरीज़ में डाल दी गई हैं। दिक्कत ये है कि सारी समस्याएं परत दर परत खुलने की बजाय एक साथ परोस कर रख दी गई हैं। ऐसे में दर्शक इन समस्याओं के जाल में ऐसा उलझता है कि कहानी के साथ आगे बढ़ना कभी कभी नामुमकिन सा लगने लगता है।

तकनीकी पक्ष

सीरीज़ को अक्षय वैद्य की म्यूज़िक के ज़रिए भक्ति भाव में पिरोने की कोशिश की गई है जो बॉबी देओल के नीरस अभिनय के कारण फेल होती दिखती है। वहीं दूसरी तरफ, सीरीज़ के भटकते हुए मुद्दों का ज़िम्मा कुलदीप रुहिल, तेजपाल सिंह रावत, अविनाश कुमार, माधवी भट्ट के कमज़ोर लेखन को दिया जा सकता है। संजय मासूम के डायलॉग्स भी यहां मदद करते नहीं दिखते हैं।

क्या है अच्छा

सीरीज़ का मुख्य प्लॉट काफी दिलचस्प है। ढोंगी बाबा और बाबा बिज़नेस में अंधे भक्तों पर हिंदी इंटरटेनमेंट ने इतने विस्तार से कुछ नहीं देखा है। कैसे एक बाबा के 44 लाख भक्त, राजनीति का वोट बैंक बन जाते हैं, ये भी दर्शकों ने शायद पहली बार देखा है। इसलिए सीरीज़ अपनी शुरूआत में दर्शकों को बांधने की पूरी कोशिश करती है।

कहां किया निराश 
9 एपिसोड की ये सीरीज़ अब तक केवल एक ढोंगी बाबा के जीवन की भूमिका ही बांध पाई है। वहीं सीरीज़ का पहला पार्ट जहां हर एपिसोड 40 मिनट लंबा है, वहां अब तक केवल कहानी की नींव बिछाई गई है और असली कहानी का वादा प्रकाश झा आखिरी एपिसोड में दूसरे सीज़न के टीज़र में करते हैं। जो कि दर्शकों को पूरी तरह निराश कर देता है।देखें या ना देखें इस सीरीज़ के दूसरे पार्ट का सीज़न प्रभावशाली है। दिक्कत बस ये है कि वो सीज़न देखने के लिए आपको ये सीज़न देखना ही पड़ेगा। भले ही ये बेहद लंबा, नीरस और प्रभावशाली नहीं है। फिर भी प्रकाश झा अगले सीज़न का धमाकेदार वादा कर, इस सीज़न को देखने के लिए मजबूर छोड़ जाते हैं।

Comments